नारी विमर्श >> भूल का फूल भूल का फूलप्रहलाद सिंह राठौड़
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प्रह्लाद सिंह राठौड़ का एक रोचक और पठनीय उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
कथा-उपन्यास एक ऐसी विधा है जो व्यक्ति-जीवन से गहरे तक जुड़ी हुई है। कथा
का कथानक काल्पनिक होते हुए भी वास्तविक जीवन की सच्चाई से किसी न किसी
मोड़ पर टकरा ही जाता है। इसका एक मात्र कारण यही होता है कि ये जिन
घटनाओं पर आधारित होते हैं, वे हमारे आस-पास की ही उपज होती हैं। आम जीवन
में कहीं न कहीं घटित होती ही रहती हैं। कल्पना तो केवल उस घटना को
विस्तार देने, पात्रों को उभार कर गति देने की भाषा-शैली को प्रभावी,
आकर्षक बनाने का एक साधन मात्र होती है। कल्पना का अलग अपना कोई अस्तित्व
नहीं होता। होता भी हो तो वह सच की बैसाखी के सहारे गतिमान होता है। यही
कल्पना की अपनी पहचान और विशेषता है। इस कारण हर कृतिकार इसका सहारा लेता
है। इसके बिना हर सृजन रसहीन, भावहीन और प्रभावहीन ही रह जाता है।
प्यार एक ऐसा शब्द है जो अच्छा और बुरा दोनों का प्रतिपादन करता है। इसी कारण से तो इसे रंगहीन और गंधहीन की संज्ञा दी गई है। यह रंग-रूप, ऊँच-नीच, गरीबी-अमीरी और छोटे-बड़े जैसी हीनभावना से भी रहित होता है। कहीं प्यार श्रद्धा और पवित्रता का प्रतीक होता है, तो कहीं वासना रूपी कुत्सित विकृत मानसिकता का द्योतक बन जाता है। कलंक-बदनामी और जीवन की विद्रूपताओं का कारण बन जाता है।...और कभी-कभी तो प्यार फांसी का फंदा बन कर सर्वनाश का कारण बन जाता है अतीत और वर्तमान दोनों ही इन बातों के मूक साक्षी हैं। कुछ और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है।
प्रेम का अंकुरण कोमल हृदय के पवित्र धरातल पर होता है। उसी जमीन पर शनैः शनैः पल्लवति होता है, बढ़ता है, फूलता है और फलता है। त्याग, विश्वास और समर्पण इसका आधारभूत सहारा होते हैं। भावनाएँ इनका संबल होती हैं। किन्तु कभी-कभी अमर्यादित चेष्टाएँ प्यार की विकृत मानसिकता को बढ़ावा देकर, हमारी सभ्यता, संस्कृति और समाजिक प्रतिष्ठा को लज्जित कर देती हैं। यही प्यार की बदनामी का कारण बनता है।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्यार का वह स्वरूप नहीं रहा है जैसा कि हम समझते हैं। सोचते आए हैं। इसकी पवित्रता शक के दायरे में सीमित होकर रह गई है। जैसा कल तक था वैसा आज नहीं है और जो आज है वह कल नहीं रहेगा। प्यार हवसपूर्ति और मनबहलाव का साधन मात्र बनकर रह गया है।
प्रस्तुत उपन्यास ‘भूल का फूल’ इन्हीं अवधारणाओं पर आधारित त्रस्त नारी जीवन के यथार्थ की सिसकियों का एक काल्पनिक चित्रण है। इस उपन्यास की नायिका कमला भोली और निश्छल हृदया है जो प्यार का मतलब और परिणाम तक नहीं समझती। उसके लिए तो सभी एक मन और अपने जैसे होते हैं। लेकिन उसके साथ घटित घटना प्यार के आहत संदर्भों का गहरा कड़ुवा अनुभव उसकी पवित्र झोली में डाल जाती हैं जिसके गहरे घाव का दर्द उसे विकलित विचलित कर देता है।
राजेश शहरी माहौल में पला, बढ़ा। अमीर बाप की बिगड़ैल बेटा। शहरी अपसंस्कृति की चकाचौंध में सामाजिक और मानवीय मूल्यों को दरकिनार कर भटक जाता है। आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता की अंधी दौड़ में सामाजिक मर्यादाओं के दायरों से बहुत आगे निकल जाता है। शराब पार्टी क्लब और खूबसूरत युवतियों के साथ मौजमस्ती उसके जीवन की कमजोरी बन जाती है। संयोग से पिता के कारोबार के सिलसिले में वह कमला के गाँव चला आता है। अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से कमला के पिता को भरमा कर उसका विश्वास जीत लेता है। शरीफ परदेशी बनकर उन्हीं के मकान में रहने लगता है। सीधी-सादी भोली कमला का रूप यौवन देखकर उसके मन में कुत्सित भावना जागृत हो उठती है और कमला के माथे पर कलंक का टीका लगा कर राजेश चुपचाप खिसक जाता है। निश्छल प्यार और विश्वास को समर्पित नारी हृदय को गहरी ठेस पहुँचती है।
असहाय कमला हतप्रभ रह जाती है। पुरुष का अजाना स्वरूप उसके हृदय को गहरे तक छील देता है। वह बदनामी के डर से घर छोड़कर शहर की ओर चल पड़ती है। वहाँ उसका राजेश के बदले हुए स्वरों से सामना होता है। कमला जीवन से हताश-निराश हो मौत को वरण करने पर तुल जाती है। किन्तु एक संन्यासी उसे बचा लेता है और अपने आश्रम में शरण दे देता है। जहाँ कमला की कोख से ‘भूल का फूल’ जन्म लेता है...अस्तित्व में आता है।
इससे आगे आशा-निराशा, दुःख, क्षोभ, घुटन और पश्चाताप से भरी कहानी आप इसी उपन्यास में पढ़िए, और यह कृति आपको कैसी लगी इससे मुझे अवश्य अवगत कराइए।
इसी सुखद उम्मीद के साथ ‘भूल का फूल’ आपके हाथों में सौंप रहा हूँ।
प्यार एक ऐसा शब्द है जो अच्छा और बुरा दोनों का प्रतिपादन करता है। इसी कारण से तो इसे रंगहीन और गंधहीन की संज्ञा दी गई है। यह रंग-रूप, ऊँच-नीच, गरीबी-अमीरी और छोटे-बड़े जैसी हीनभावना से भी रहित होता है। कहीं प्यार श्रद्धा और पवित्रता का प्रतीक होता है, तो कहीं वासना रूपी कुत्सित विकृत मानसिकता का द्योतक बन जाता है। कलंक-बदनामी और जीवन की विद्रूपताओं का कारण बन जाता है।...और कभी-कभी तो प्यार फांसी का फंदा बन कर सर्वनाश का कारण बन जाता है अतीत और वर्तमान दोनों ही इन बातों के मूक साक्षी हैं। कुछ और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है।
प्रेम का अंकुरण कोमल हृदय के पवित्र धरातल पर होता है। उसी जमीन पर शनैः शनैः पल्लवति होता है, बढ़ता है, फूलता है और फलता है। त्याग, विश्वास और समर्पण इसका आधारभूत सहारा होते हैं। भावनाएँ इनका संबल होती हैं। किन्तु कभी-कभी अमर्यादित चेष्टाएँ प्यार की विकृत मानसिकता को बढ़ावा देकर, हमारी सभ्यता, संस्कृति और समाजिक प्रतिष्ठा को लज्जित कर देती हैं। यही प्यार की बदनामी का कारण बनता है।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्यार का वह स्वरूप नहीं रहा है जैसा कि हम समझते हैं। सोचते आए हैं। इसकी पवित्रता शक के दायरे में सीमित होकर रह गई है। जैसा कल तक था वैसा आज नहीं है और जो आज है वह कल नहीं रहेगा। प्यार हवसपूर्ति और मनबहलाव का साधन मात्र बनकर रह गया है।
प्रस्तुत उपन्यास ‘भूल का फूल’ इन्हीं अवधारणाओं पर आधारित त्रस्त नारी जीवन के यथार्थ की सिसकियों का एक काल्पनिक चित्रण है। इस उपन्यास की नायिका कमला भोली और निश्छल हृदया है जो प्यार का मतलब और परिणाम तक नहीं समझती। उसके लिए तो सभी एक मन और अपने जैसे होते हैं। लेकिन उसके साथ घटित घटना प्यार के आहत संदर्भों का गहरा कड़ुवा अनुभव उसकी पवित्र झोली में डाल जाती हैं जिसके गहरे घाव का दर्द उसे विकलित विचलित कर देता है।
राजेश शहरी माहौल में पला, बढ़ा। अमीर बाप की बिगड़ैल बेटा। शहरी अपसंस्कृति की चकाचौंध में सामाजिक और मानवीय मूल्यों को दरकिनार कर भटक जाता है। आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता की अंधी दौड़ में सामाजिक मर्यादाओं के दायरों से बहुत आगे निकल जाता है। शराब पार्टी क्लब और खूबसूरत युवतियों के साथ मौजमस्ती उसके जीवन की कमजोरी बन जाती है। संयोग से पिता के कारोबार के सिलसिले में वह कमला के गाँव चला आता है। अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से कमला के पिता को भरमा कर उसका विश्वास जीत लेता है। शरीफ परदेशी बनकर उन्हीं के मकान में रहने लगता है। सीधी-सादी भोली कमला का रूप यौवन देखकर उसके मन में कुत्सित भावना जागृत हो उठती है और कमला के माथे पर कलंक का टीका लगा कर राजेश चुपचाप खिसक जाता है। निश्छल प्यार और विश्वास को समर्पित नारी हृदय को गहरी ठेस पहुँचती है।
असहाय कमला हतप्रभ रह जाती है। पुरुष का अजाना स्वरूप उसके हृदय को गहरे तक छील देता है। वह बदनामी के डर से घर छोड़कर शहर की ओर चल पड़ती है। वहाँ उसका राजेश के बदले हुए स्वरों से सामना होता है। कमला जीवन से हताश-निराश हो मौत को वरण करने पर तुल जाती है। किन्तु एक संन्यासी उसे बचा लेता है और अपने आश्रम में शरण दे देता है। जहाँ कमला की कोख से ‘भूल का फूल’ जन्म लेता है...अस्तित्व में आता है।
इससे आगे आशा-निराशा, दुःख, क्षोभ, घुटन और पश्चाताप से भरी कहानी आप इसी उपन्यास में पढ़िए, और यह कृति आपको कैसी लगी इससे मुझे अवश्य अवगत कराइए।
इसी सुखद उम्मीद के साथ ‘भूल का फूल’ आपके हाथों में सौंप रहा हूँ।
प्रहलाद सिंह राठौड़
लेखक
लेखक
भूल का फूल
दिन का तीसरा पहर था। दोपहर की तपन ठंडा गई थी। जंगल में सब दूर सन्नाटा
पसर गया था। पहाड़ की खोह में छाया उतर आई थी। संन्यासी की गुफा से धुआँ
उठ रहा था। शायद धूनी चैतन्य थी।
संन्यासी गुफा के बाहर खड़े सूरज के रथ को निहार रहे थे, जो तेजी से क्षितिज की ओर बढ़ रहा था। अनायास उसकी निगाह ऊँचे पर्वत की चोटी पर अटक गई। पल-दो पल उन्होंने सोंचने में गँवाए और फिर तेजी से खोह में उतर गए। अनहोनी की आशंका से वे विचलित हो उठे थे।
खोह के ऊबड़-खाबड़ रास्ते को शीघ्रता से पार कर वे सामने वाली पहाड़ी पर लंगूर की तरह चढ़ने लगे थे। इस समय उनकी बूढ़ी हड्डियों में कमाल की ताकत और फुर्ती नजर आ रही थी।
अधबीच से ही संन्यासी ने देखा, ऊँची चट्टान के एक छोर पर एक युवती खड़ी थी। उसका इरादा नेक नहीं था। शायद जीवन से तंग आ गई थी वह।
‘‘नहीं पुत्री नहीं....! ऐसा अनर्थ मत करना, जीवन अमूल और ईश्वर की अमानत है। इसे इस तरह गवाँ देना विवेकहीनता है। रुक जा बेटी...!’’ संन्यासी बाबा ने फुर्ती से लपक कर उसका बाजू थाम लिया।
झटके से वह युवती संन्यासी की बाँहों में झूल गई।
‘‘यह क्या करने चली थी तुम बेटी ? यह तो कोई समझदारी नहीं है, और न मुक्ति का कोई मार्ग ही।’’ संन्यासी ने कहा और सहारा देकर उसे घने वृक्ष की छाया में ले आए।
दोनों जमीन पर बैठ गए।
मन में उठ रहे उद्वेग पर काबू पाने के बाद उस युवती ने कहा—‘‘ओह बाबा ! क्यों बचाया होगा मुझे ? अब जीने की चाह नहीं है मुझे।’’ कहने के साथ ही उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा फूट पड़ी।
संन्यासी का हृदय लरज गया। वह युवती के सूखे और अस्त-व्यस्त बालों पर स्नेह से हाथ फिराते हुए बोले—‘‘नहीं पुत्री, जीवन से इस तरह निराश होना कायरता है। इसे बुद्धिमानी अथवा साहस की संज्ञा नहीं दी जा सकती। मन के विकारों पर काबू पा बेटी ! जीवन तो संघर्ष का पर्याय है। इस तरह जीवन से हार मान लेना उचित नहीं है।’’ संन्यासी ने उसे सांत्वना देते हुए कहा।
‘‘इस लम्बे-चौड़े पहाड़ से जीवन को एक अकेली नारी और वह भी कलंकित, सताई और ठुकराई हुई, कैसे जी सकती है बाबा ? अच्छाई तो हर कोई गले लगाने के लिए तत्पर रहता है, किन्तु बुराई को सम्मुख देख कर उसकी सारी आतुरती कपूर के धुएँ की तरह गायब हो जाती है। यह कैसा विधान है विधि का ? कुछ समझ नहीं आता।’’ और उसने अपने आँसू पोछ लिए।
‘‘जो समझ नहीं आता उसे समझने में व्यर्थ समय नहीं गँवाते पुत्री ! समय का धैर्य के साथ इंतजार करना चाहिए। क्योंकि समय तो गतिमान और परिवर्तनशील है। जो समय कल था वह आज नहीं है, और जो आज है वह कल नहीं रहेगा। यह कल, आज और कल हमेशा बने रहेंगे। ये ही हमारा अतीत है, वर्तमान है और भविष्य भी। मेरी बात समझ रही हो न तुम !’’ संन्यासी ने कहा।
‘‘नहीं, मुझे जीवन समाप्त कर देने के अलावा और कुछ समझ में नहीं आता।’’
‘‘इस समय तुम्हारा मन विचलित और अशान्त है बेटी। चलो, आश्रम में थोड़ा आराम कर लेने पर तुम्हें शांति मिलेगी।’’ संन्यासी ने उसे चलने का संकेत करते हुए कहा।
युवती कुछ पल सोचती रही। फिर महात्मा के पीछे-पीछे पहाड़ से नीचे उतरने लगी। उसका मस्तिष्क अभी भी विचारों का चौराहा बना हुआ था। और वह उनके बीच अपने आप को प्रदिशा की तरह महसूस कर रही थी।
ढलान से नीचे उतरते ही ठंडे जल का नीचे झरना बह रहा था। यहाँ वृक्षों पर हरियाली और हवा में शीतलता थी। पहाड़ी फूलों की खुशबू घाटी में फैली हुई थी। यहाँ आते ही युवती के मस्तिष्क का तनाव कुछ कम हुआ। मन में भी उसे कुछ शांति-सी महसूस हुई।
वह झरने के ठंडे पानी के पास एक चट्टान पर बैठ गई। अंजुलि से पानी पिया। मुँह धोया। कुछ देर यों ही पानी में पैर लटकाए बैठी रही।
संन्यासी गुफा के बाहर खड़े सूरज के रथ को निहार रहे थे, जो तेजी से क्षितिज की ओर बढ़ रहा था। अनायास उसकी निगाह ऊँचे पर्वत की चोटी पर अटक गई। पल-दो पल उन्होंने सोंचने में गँवाए और फिर तेजी से खोह में उतर गए। अनहोनी की आशंका से वे विचलित हो उठे थे।
खोह के ऊबड़-खाबड़ रास्ते को शीघ्रता से पार कर वे सामने वाली पहाड़ी पर लंगूर की तरह चढ़ने लगे थे। इस समय उनकी बूढ़ी हड्डियों में कमाल की ताकत और फुर्ती नजर आ रही थी।
अधबीच से ही संन्यासी ने देखा, ऊँची चट्टान के एक छोर पर एक युवती खड़ी थी। उसका इरादा नेक नहीं था। शायद जीवन से तंग आ गई थी वह।
‘‘नहीं पुत्री नहीं....! ऐसा अनर्थ मत करना, जीवन अमूल और ईश्वर की अमानत है। इसे इस तरह गवाँ देना विवेकहीनता है। रुक जा बेटी...!’’ संन्यासी बाबा ने फुर्ती से लपक कर उसका बाजू थाम लिया।
झटके से वह युवती संन्यासी की बाँहों में झूल गई।
‘‘यह क्या करने चली थी तुम बेटी ? यह तो कोई समझदारी नहीं है, और न मुक्ति का कोई मार्ग ही।’’ संन्यासी ने कहा और सहारा देकर उसे घने वृक्ष की छाया में ले आए।
दोनों जमीन पर बैठ गए।
मन में उठ रहे उद्वेग पर काबू पाने के बाद उस युवती ने कहा—‘‘ओह बाबा ! क्यों बचाया होगा मुझे ? अब जीने की चाह नहीं है मुझे।’’ कहने के साथ ही उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा फूट पड़ी।
संन्यासी का हृदय लरज गया। वह युवती के सूखे और अस्त-व्यस्त बालों पर स्नेह से हाथ फिराते हुए बोले—‘‘नहीं पुत्री, जीवन से इस तरह निराश होना कायरता है। इसे बुद्धिमानी अथवा साहस की संज्ञा नहीं दी जा सकती। मन के विकारों पर काबू पा बेटी ! जीवन तो संघर्ष का पर्याय है। इस तरह जीवन से हार मान लेना उचित नहीं है।’’ संन्यासी ने उसे सांत्वना देते हुए कहा।
‘‘इस लम्बे-चौड़े पहाड़ से जीवन को एक अकेली नारी और वह भी कलंकित, सताई और ठुकराई हुई, कैसे जी सकती है बाबा ? अच्छाई तो हर कोई गले लगाने के लिए तत्पर रहता है, किन्तु बुराई को सम्मुख देख कर उसकी सारी आतुरती कपूर के धुएँ की तरह गायब हो जाती है। यह कैसा विधान है विधि का ? कुछ समझ नहीं आता।’’ और उसने अपने आँसू पोछ लिए।
‘‘जो समझ नहीं आता उसे समझने में व्यर्थ समय नहीं गँवाते पुत्री ! समय का धैर्य के साथ इंतजार करना चाहिए। क्योंकि समय तो गतिमान और परिवर्तनशील है। जो समय कल था वह आज नहीं है, और जो आज है वह कल नहीं रहेगा। यह कल, आज और कल हमेशा बने रहेंगे। ये ही हमारा अतीत है, वर्तमान है और भविष्य भी। मेरी बात समझ रही हो न तुम !’’ संन्यासी ने कहा।
‘‘नहीं, मुझे जीवन समाप्त कर देने के अलावा और कुछ समझ में नहीं आता।’’
‘‘इस समय तुम्हारा मन विचलित और अशान्त है बेटी। चलो, आश्रम में थोड़ा आराम कर लेने पर तुम्हें शांति मिलेगी।’’ संन्यासी ने उसे चलने का संकेत करते हुए कहा।
युवती कुछ पल सोचती रही। फिर महात्मा के पीछे-पीछे पहाड़ से नीचे उतरने लगी। उसका मस्तिष्क अभी भी विचारों का चौराहा बना हुआ था। और वह उनके बीच अपने आप को प्रदिशा की तरह महसूस कर रही थी।
ढलान से नीचे उतरते ही ठंडे जल का नीचे झरना बह रहा था। यहाँ वृक्षों पर हरियाली और हवा में शीतलता थी। पहाड़ी फूलों की खुशबू घाटी में फैली हुई थी। यहाँ आते ही युवती के मस्तिष्क का तनाव कुछ कम हुआ। मन में भी उसे कुछ शांति-सी महसूस हुई।
वह झरने के ठंडे पानी के पास एक चट्टान पर बैठ गई। अंजुलि से पानी पिया। मुँह धोया। कुछ देर यों ही पानी में पैर लटकाए बैठी रही।
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